गैंगरेप का गैंग शर्माता क्यों नहीं, माहवारी में तो शर्म आज भी है !
उसका हल्का सा टॉप खिसक गया था, ब्रा की स्ट्रैप दिखाई देने लगी। कई लड़कों की निगाहें हवा से भी तेज रफ्तार के साथ उस काली स्ट्रिप को झांकने लगीं। निगाहें सिर्फ स्ट्रिप पर नहीं सीमित थीं। तभी शायद लड़की की मां ने देख लिया...इशारे में कहा जल्दी से संभालो। लड़के देख रहे हैं। स्ट्रिप संभालते हुए बस में चढ़ गई। अचानक से एक अधेड़ उम्र का शख्स लड़की से जोर से टकराता है। कांधे को घूर-घूरकर देखता है। बस की सीट को पकड़ते पकड़ते लड़की के हाथ को जोर से मसल देता है। जी हां ये है यूपी। और ऐसी तमाम घटनाएं रोज होती हैं। ऑटो की बैक सीट में जब तीन लोगों के बजाए चार लोग बैठाए जाएं। और उसमें से तीन लड़के और एक लड़की हो। तो गौर कीजिएगा युवकों का यौवन चार लोगों से भी ज्यादा जगह घेरने लगता है। पैर टकराते हैं, हाथ गलती गलती में कांधे को छू जाते हैं। सशक्तिकरण के झूठे फंदे में झूल रही लड़की व्यवस्थाओं को गौर से देखती है....उन व्यवस्थाओं के पीछे छिपे शोषण को देखती है। 1090 से लेकर डायल 100 तक सबको बारी बारी से अपने जहन में उतार लाती है। और उनके परिणाम समेत दुष्परिणाम दोनों को आंकती है। एक बार यह भी सोचती है कि जो मां माहवारी को छिपाने के लिए बचपन से इतनी कहानियां बनाती आई है। गंदा खून बताती आई है। वो खून जो हर महीने उसे निचोड़ देता है, तोड़ देता है। ब्रा को हमेशा तौलिये के नीचे टांगने की नसीहत देती आई है, पैंटी को कपड़ों के बीच में दबाने छिपाने के तरीके समझाती आई है। आखिर वो कैसे इस बात को स्वीकार कर सकती है। ये तमाम सवाल अपाहिज व्यवस्थाओं को और लाचार बनाते रहे हैं। जब जब ये व्यवस्थाएं मजबूत होने की कोशिश करतीं तो इन्हें पैसे की हवस के चलते एक दफे फिर से तोड़ दिया जाता। दरअसल ये उदाहरण सूबे की ध्वस्त व्यवस्थाओं के पीछे की कहानी है। 1090 समेत तमाम दावे जो सशक्तिकरण कि दिशा में चलते हैं उनके असफल होने का वास्तविक कारण भी। निर्भया को तैयार करने वालों के पीछे की कहानी भी कहीं न कहीं इसी के इर्द गिर्द है। माह भर की बच्ची में भी ये समाज आज काम वासना तलाश लेता है और 90 साल की वृद्ध महिला में भी। भीख मांगती उस मासूम बच्ची जिसके पैर कीचड़ से सने हुए हैं...उसके गंदे पैरों से भी सेक्स तलाश लिया जाता है। ब्रा, पैंटी से सेक्स तलाशा जाता है। लेकिन आज भी सेनेटरी पैड में लगा माहवारी का खून अपवित्र है। मंदिर में नहीं जा सकतीं, घर में रखी अलमारी को उस दौरान नहीं छुआ जा सकता। वैश्यायें इन घटनाओं को देखकर आज भी कहती होंगी कि क्यों किसी मजलूम को शिकार बनाते हैं...जब हम मात्र 200 रुपये में मर्दानगी के कीड़े शांत करने का पर्याप्त बंदोबस्त करते हैं। लेकिन घटनाएं नहीं रुकतीं...वर्ष 2016 में बुलंदशहर में एनएच 91 में गैंगरेप की वारदात, 4 मई 2017 को जालौन में पति के सामने पत्नी के साथ गैंगरेप की वारदात, 25 मई 2017 को ग्रेटर नोएडा में गैंगरेप की कोशिश, अखबारो में छपी हेडलाइन कि मासूम के साथ बलात्कार और उसमें लोकेशन की जगह यूपी के अलग अलग जिलों के छोटे छोटे कस्बों का जिक्र...दरअसल ये तमाम मामले रुढ़िवादी सोच के बाद के दुष्परिणाम ही तो हैं। उत्तर प्रदेश राज्य अपराध ब्यूरो की ओर से जारी आंकड़ों के मुताबिक, 2014 में उप्र में दुष्कर्म की 3,467 घटनाएं हुई थीं, जबकि 2015 में ये बढ़कर 9,075 हो गईं। ये घटनाएं महज कानून व्यवस्था की मुस्तैदी भर से क्या रुक सकते हैं। शायद नहीं। निर्भया के गुनहगारों को फांसी की सजा मिली...क्या अपराध रुक गए। हालांकि सजा पर्याप्त है...माननीय सुप्रीम कोर्ट के आदेश की लोगों ने जमकर प्रशंसा की। लेकिन असल में आवश्यकता है सजा के तरीकों को बदलने की। साथ ही घर से लेकर समाज के बीच में एक बेहतर सोच विकसित करने की कि स्ट्रिप दिख जाए तो गुनाह नहीं। अगर गुनाह है तो गैंगरेप, रेप। और उसकी सजा जो दिमाग के घोड़े छोड़ने के साथ साथ विकल्प के तौर पर एक तरफ कुआं और एक तरफ खाई रखे।
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